हम कौन हैं? उत्तराखंडी पहचान पर एक बहस

हम कौन हैं? उत्तराखंडी पहचान पर एक बहस

 

राजेन टोडरिया

करीब 13 साल पहले जब उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अपने पूर्वजों को बंगाली बताया, तो यह कोई पहला मौका नहीं था जब उत्तराखंड की उच्च जातियों ने अपनी जड़ों को पहाड़ के बाहर तलाशने की कोशिश की। यह सवाल लंबे समय से पहाड़ी समाज में गूंजता रहा है—क्या हम वास्तव में पहाड़ी हैं, या हमारी पहचान कहीं और से जुड़ी हुई है?

पहाड़ में आकर भी पहाड़ी नहीं?

उत्तराखंड के कुलीन ब्राह्मण और क्षत्रिय समुदाय अक्सर यह दावा करते रहे हैं कि वे बाहर से आए हैं। कहा जाता है कि बद्रीनाथ के पुजारी शंकराचार्य के साथ दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, या मध्यप्रदेश से आए थे। लेकिन सवाल यह है कि 1200 साल या उससे भी अधिक समय तक पहाड़ों में रहने के बावजूद हम खुद को इस धरती का मूल निवासी मानने में हिचकिचाते क्यों हैं?

 

हमारी 28 से अधिक पीढ़ियां इस भूमि में जन्मी, पली-बढ़ी हैं। हमारी मिट्टी, हमारा भोजन, यहां की नदियां और आबोहवा ने हमारे डीएनए में बदलाव किए हैं। फिर भी, कुछ लोग अपनी जड़ों को मैदानों में खोजने की कोशिश करते हैं। क्या यह हीनभावना है, या अपनी ही भूमि के प्रति एक तरह की उदासीनता?

 

जो वास्तव में उत्तराखंडी हैं

मैं उत्तराखंड के खश और शिल्पकार समुदाय को प्रणाम करता हूं। सदियों तक सवर्णों द्वारा उपेक्षित किए जाने के बावजूद उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि वे यहां के नहीं हैं। वे अपनी जड़ें मैदानों में नहीं तलाशते। वे इस धरती को अपनी मातृभूमि मानते हैं और इस पर गर्व करते हैं।

 

जो लोग खुद को बंगाली, बिहारी, कन्नड़ या मराठी मानते हैं, उनके लिए बेहतर होगा कि वे अपने ‘मूल’ राज्यों में जाकर बस जाएं। उत्तराखंड किसी की जबरन मातृभूमि नहीं है, बल्कि यह उन लोगों की धरोहर है जो इसे दिल से अपनाते हैं।

 

पहाड़ की महान संस्कृति

उत्तराखंड का समाज एक अनूठा समाज है। पहाड़ियों की ईमानदारी, संतोषी स्वभाव और नैतिकता की मिसालें दी जाती थीं। एक समय था जब मैदानों में पहाड़ी नौकरों की मांग इसलिए थी क्योंकि वे मेहनती और ईमानदार माने जाते थे।

 

आज भी, उत्तराखंड के गांवों में ताले नहीं लगाए जाते। अपराध दर इतनी कम है कि एक निहत्था पटवारी पूरे क्षेत्र की कानून-व्यवस्था संभाल सकता है। इतिहास में कई बार ऐसा हुआ जब अपराधी खुद अदालत में पेश हो गए, क्योंकि यह उनकी नैतिकता का हिस्सा था।

 

क्या हमें अपनी पहचान पर गर्व नहीं होना चाहिए?

क्या हम वास्तव में पिछड़े हैं? अगर ‘अगड़ा’ होने का मतलब लालच, धोखा और स्वार्थ है, तो हमें गर्व है कि हम ‘पिछड़े’ हैं। उत्तराखंड केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि एक महान सभ्यता है। हम दुनिया के पर्वतीय समाजों का हिस्सा हैं—जैसे आल्प्स, काकेशस, हिंदूकुश के लोग। हमारी संस्कृति, हमारी विरासत और हमारी पहचान हमें गर्व से भर देती है।

 

जो लोग खुद को किसी और भूमि से जोड़कर गौरवान्वित महसूस करते हैं, उन्हें अपनी पहचान पर फिर से सोचने की जरूरत है। उत्तराखंड सिर्फ रहने की जगह नहीं, यह हमारी आत्मा है। और इस पहचान पर हमें गर्व होना चाहिए।

 

यह लेख राजेन टोडरिया के बेटे और आंदोलनकारी लुसुन टोडरिया ने अपने फेसबुक अकाउंट पर साझा किया है।

 

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