देहरादून।
उत्तराखंड का राजनीतिक परिदृश्य एक अजीब विडंबना पेश करता है। यहां जनता के चुने हुए विधायकों को देश के कई अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक वेतन, भत्ते और सुविधाएं मिलती हैं, लेकिन जब बात विधानसभा सत्र के दिनों की आती है, तो आंकड़े बेहद निराशाजनक और चिंताजनक तस्वीर दिखाते हैं।
मोटा वेतन, जनता के मुद्दों पर ‘पतली’ चर्चा
राज्य के विधायक प्रतिमाह लाखों रुपये वेतन, यात्रा भत्ता, आवास, कार और पेंशन जैसी सुविधाएं पाते हैं। लेकिन जब जनता की गाढ़ी कमाई से मिले इन पैसों का हिसाब जनता मांगती है, तो विधानसभा सत्र की हकीकत सामने आती है। उत्तराखंड विधानसभा का सालाना औसत सत्र 15 से 20 दिन के बीच ही सिमटकर रह जाता है, जबकि पड़ोसी राज्यों जैसे हिमाचल प्रदेश और झारखंड में यह आंकड़ा 35 से 45 दिन तक पहुंच जाता है। यानी जनता के मुद्दों पर चर्चा का समय आधा से भी कम।
ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण का सपना अधूरा
जब उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया था, तब जनता ने उम्मीद की थी कि यहां की राजनीति दिल्ली और लखनऊ की नकल नहीं, बल्कि पहाड़ के हालात के अनुसार अलग और सार्थक होगी। 2016 में गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया। इरादा था कि कम से कम साल में एक सत्र वहीं आयोजित होगा ताकि पहाड़ की असली समस्याओं को करीब से समझा और हल किया जा सके। लेकिन हकीकत यह है कि गैरसैंण सत्र अक्सर केवल औपचारिकता बनकर रह गया है। कई बार तो वहां आयोजित सत्र मुश्किल से 2-3 दिन में ही खत्म कर दिए गए।
जनता का भरोसा क्यों टूट रहा है?
विधानसभा लोकतंत्र का मंदिर माना जाता है, जहां जनता की आवाज सबसे बुलंद होनी चाहिए। लेकिन उत्तराखंड की स्थिति इसके बिल्कुल उलट है। बेरोजगारी, पलायन, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, किसानों की बदहाली और शिक्षा जैसे गंभीर विषयों पर गहन बहस के बजाय सत्र का समय अक्सर हंगामे, टकराव या जल्दबाजी में पारित प्रस्तावों में खर्च हो जाता है। परिणाम यह होता है कि जनता की बुनियादी समस्याएं वहीं की वहीं रह जाती हैं और सत्र के बाद केवल विधायकों की बढ़ी हुई सुविधाओं और भत्तों की चर्चा होती है।
लोकतंत्र या मज़ाक?
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उत्तराखंड की विधानसभा की यह स्थिति लोकतंत्र के साथ एक बड़ा मज़ाक है। विधायकों की संख्या कम है, राज्य छोटा है, लेकिन समस्याएं बड़ी और जटिल हैं। ऐसे में विधानसभा सत्र को लंबा चलाना और सार्थक बहस करना बेहद ज़रूरी है। लेकिन जो हो रहा है, वह इसके बिल्कुल उलट है – मोटी तनख्वाह, बड़ी सुविधाएं और जनता के मुद्दों पर बेहद कम दिन।
बदलाव की सख्त ज़रूरत
जनता अब सवाल पूछ रही है – क्या विधायक केवल वेतन और भत्ते के लिए चुने गए हैं या जनता की आवाज उठाने के लिए? विशेषज्ञों का मानना है कि सत्र की अवधि को न्यूनतम 40-45 दिन तक बढ़ाना चाहिए और गैरसैंण में नियमित एवं लंबा सत्र अनिवार्य किया जाना चाहिए। तभी उत्तराखंड की राजनीति जनता की उम्मीदों पर खरी उतर पाएगी।
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