देहरादून।
जनकवि गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ आज भी अपनी कविताओं और गीतों के जरिए लोगों के दिलों में जीवित हैं। 22 अगस्त, 2010 को उनका निधन हो गया था, लेकिन उनके गीत अब भी आंदोलनों की आवाज हैं, संघर्ष का प्रेरणास्रोत हैं और उम्मीद की नई सुबह का संदेश देते हैं।
अल्मोड़ा जनपद के ज्योली गांव में 10 सितंबर, 1945 को जन्मे ‘गिर्दा’ ने बचपन से ही लोक संस्कृति और प्रतिकार की चेतना को आत्मसात कर लिया। ढोल-दमाऊं, हुड़़का और लोकगीतों की थाप पर पले-बढ़े गिर्दा ने गीत-संगीत को ही अपना जीवन बना लिया। उन्होंने औपचारिक पढ़ाई से अधिक समाज और आंदोलनों से सीखा और वही उनके रचनाकर्म की धुरी बना।
सत्तर का दशक जब पूरे उत्तराखंड में वन आंदोलन और सामाजिक आंदोलनों का दौर था, गिर्दा उनकी अगुवाई करने वालों की पंक्ति में खड़े थे। हुड़के की थाप पर जब उन्होंने ‘आज हिमाला तुमन क ध्यतौंछ’ या ‘जैंता एक दिन तो आलो दिन य दुनि में’ गाया, तो ये गीत सिर्फ गीत नहीं रहे, बल्कि आंदोलन की पहचान बन गए।
गिर्दा सिर्फ कवि नहीं, बल्कि आंदोलनकारी, रंगकर्मी और जनचेतना के संवाहक थे। उन्होंने ‘नगाड़े खामोश हैं’, ‘धनुष यज्ञ’ जैसे नाटक लिखे, लोककथाओं को नुक्कड़ नाटकों में ढाला और उत्तराखंड आंदोलन से लेकर नदियों-जंगलों की लड़ाई तक हर मोर्चे पर अपनी रचनाओं से जनता की आवाज को स्वर दिया।
फैज और साहिर लुधियानवी की नज़्मों को कुमाउनी में अनुवाद कर उन्होंने प्रतिकार की भाषा को और सशक्त बनाया। उनका विश्वास था कि चाहे हम न ला सकें, लेकिन नई पीढ़ी एक बेहतर समाज जरूर बनाएगी। यही वजह है कि आज भी गिर्दा के गीत संघर्षरत जनता के बीच गूंजते हैं—”हम नहीं होंगे, फिर भी हम होंगे।”
गिर्दा का जीवन यह संदेश देता है कि साहित्य और कला केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज को दिशा देने वाली मशाल है। उनकी स्मृति दिवस पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि—गिर्दा आज भी अपने गीतों और चेतना के साथ हमारे बीच मौजूद हैं।
गिर्दा का संदेश आज भी प्रासंगिक है –
“बब्बा, उठो! लड़ाई जारी है… जारी रहेगी जीतने तक।”
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