(बागेश्वर, उत्तराखंड)।
उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के गरुड़ ब्लॉक स्थित एक छोटा सा गांव — कज्यूली, पूरे प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश के लिए भी लोकतंत्र की एक अनोखी मिसाल बन चुका है। जहां एक ओर देश के अधिकांश गांवों और नगरों में पंचायत चुनाव के समय आरोप-प्रत्यारोप, धनबल-बलप्रयोग और रंजिश आम हो चुकी है, वहीं कज्यूली गांव पिछले 62 वर्षों से बिना किसी चुनाव के ग्राम प्रधान चुनता आ रहा है। यह परंपरा गांव के लोगों के बीच आपसी संवाद, भाईचारा और सामूहिक सहमति का अद्भुत उदाहरण है।
1962 से निर्विरोध परंपरा
कज्यूली गांव की यह विशेष परंपरा वर्ष 1962 से शुरू हुई, जब यह मेला डुंगरी ग्राम सभा से अलग होकर स्वतंत्र ग्राम सभा बना। तभी से अब तक इस गांव में कोई भी प्रधान पद के लिए चुनाव नहीं लड़ा गया, बल्कि हर बार निर्विरोध प्रधान चुना गया है। गांव के बुजुर्ग दीपाल सिंह भंडारी बताते हैं कि “हमारे गांव में मतभेद हो सकते हैं, लेकिन मनभेद नहीं। यही कारण है कि इतने वर्षों से हम सभी मिलकर एकमत से अपने नेता का चयन करते आए हैं।”
चयन की प्रक्रिया
गांव में जैसे ही नामांकन की तिथि आती है, सभी ग्रामवासी एकत्र होकर बैठक करते हैं। इस बैठक में सभी वर्गों और परिवारों की राय ली जाती है और सर्वसम्मति से एक ऐसे व्यक्ति का नाम तय किया जाता है, जो समाज में सम्मानित हो, सेवा की भावना रखता हो और सबको साथ लेकर चल सके। तयशुदा व्यक्ति ही नामांकन दाखिल करता है और उसे बिना विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।
यह प्रक्रिया केवल औपचारिक नहीं, बल्कि पूरे गांव की सहमति और विश्वास का परिणाम होती है। यहां राजनीति नहीं, सेवा भावना प्रधान होती है।
गांव की सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताएं
कज्यूली गांव की सफलता केवल निर्विरोध प्रधान चयन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह गांव सामाजिक सौहार्द और सांस्कृतिक एकता का भी उदाहरण है। गांव सड़क मार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है और यहां के कई लोग सरकारी और निजी क्षेत्रों में उच्च पदों पर कार्यरत हैं।
त्योहारों, मेलों, होली-दिवाली और धार्मिक आयोजनों में गांव के सभी लोग मिलजुलकर हिस्सा लेते हैं।
सामूहिक निर्णय लेने की संस्कृति ने यहां व्यक्तिगत स्वार्थ की राजनीति को पनपने ही नहीं दिया।
शिक्षक बिशन सिंह की राय
गांव के शिक्षक बिशन सिंह कहते हैं, “जब आज राजनीति में व्यक्तिगत रंजिश, विवाद और पैसा हावी हो चुका है, तब कज्यूली जैसे गांव हमें सिखाते हैं कि लोकतंत्र का असली मतलब केवल वोट डालना नहीं, बल्कि आपसी संवाद, सहयोग और सामूहिक जिम्मेदारी है।”
वे आगे कहते हैं कि, “अगर प्रदेश के अन्य गांव भी कज्यूली से प्रेरणा लें, तो पंचायत चुनावों को लोकतंत्र का उत्सव बनाया जा सकता है, न कि लड़ाई का मैदान।”
लोकतंत्र को नया दृष्टिकोण
कज्यूली गांव का यह मॉडल हमें बताता है कि लोकतंत्र केवल बहुमत की व्यवस्था नहीं है, बल्कि सामूहिक सहमति की भावना भी उसमें निहित है। यहां के लोग न केवल अपने अधिकारों को समझते हैं, बल्कि कर्तव्यों का निर्वहन भी करते हैं। कोई भी व्यक्ति सत्ता की लालसा में नहीं आता, बल्कि लोगों की राय और भरोसे के कारण नेतृत्व संभालता है।
निष्कर्ष
आज जब देशभर में चुनावों के दौरान मतभेद, फूट, कटुता और आरोप-प्रत्यारोप आम होते जा रहे हैं, तब कज्यूली गांव 62 वर्षों से यह साबित कर रहा है कि एकता, संवाद और आपसी विश्वास से लोकतंत्र को नई दिशा दी जा सकती है। यह गांव केवल एक भूगोलिक इकाई नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की जीवंत मिसाल है।
कज्यूली गांव से हमें सीखने की ज़रूरत है कि जब लोग एकजुट होते हैं, तो व्यवस्था खुद-ब-खुद पारदर्शी और कल्याणकारी बन जाती है। ऐसी मिसालें आज के समाज में और अधिक फैलने की आवश्यकता है, ताकि लोकतंत्र सच में “जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा” बन सके।
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