कार्तिक उपाध्याय ( किसानपुत्र ) ✍️
नई बहस…
अब क्या सिर्फ
जय जवान
जय किसान”???
“जब भी कोई कहता है कि किसान और जवान बराबर हैं, मेरा मन चीख उठता है। यह सच है कि जवान की ज़िंदगी कठिन है,लेकिन एक किसान पुत्र होने का संघर्ष उससे भी अधिक कठिन है। यह कहानी सिर्फ़ मेरी नहीं,उन लाखों बच्चों की है, जिनके पिता हल चलाते हैं और सपनों को मिट्टी में मिलते देखते हैं।”
संघर्ष का असली चेहरा—सीमा पर जवान, खेत में किसान
देश के दो सबसे बड़े योद्धा—एक सीमा पर और एक खेत में। एक के हाथ में बंदूक, तो दूसरे के हाथ में हल। एक गोलियों से जूझता है, दूसरा सूखे और कर्ज़ से। लेकिन अंतर देखिए—सीमा पर जवान मरता है तो शहीद कहलाता है, खेत में किसान मरता है तो कर्ज़दार।
सीमा पर जवान
• अनुशासन में बंधा जीवन, देश की सुरक्षा का भार।
• दुश्मन से लड़ने का गर्व, शहादत पर सम्मान।
• सरकार से वेतन, परिवार को सुविधाएँ।
• शहीद होने पर मुआवज़ा, परिवार की देखभाल।
खेत में किसान
• सुबह से रात तक मेहनत, अनिश्चित भविष्य।
• बारिश, सूखा, ओलावृष्टि से लड़ाई, कोई सुरक्षा नहीं।
• फ़सल अच्छी हो तो दाम गिर जाते हैं, फ़सल खराब हो तो बैंक का नोटिस आ जाता है।
• आत्महत्या के बाद भी सम्मान नहीं, बल्कि बैंक वाले घर लूटने आ जाते हैं।
अब बताइए, किसका संघर्ष बड़ा है?
किसान पुत्र की कलम से – कैसा होता है एक किसान का बेटा होना?
मुझे याद है जब दूर गाँव के एक जवान भाई शहीद हुए थे। पूरा गाँव रोया था, सरकार से मुआवज़ा आया, गाँव में उनकी मूर्ति लगाई गई। और मैं सोचता रहा—”अगर मेरे पिता भी किसी रात खलिहान में ठंड से मर गए, या कर्ज़ के बोझ से लटक गए, तो क्या तब भी गाँव रोएगा? क्या सरकार मदद करेगी?”
मेरा पिता किसान थे। सालों से संघर्ष करें। जब मैं स्कूल जाता था, तो मेरे दोस्त कहते थे—”तेरा बाप तो किसान है, तू बड़ा होकर क्या करेगा?” जैसे किसान होना गुनाह है।
मेरे जवान दोस्त अपने पिता की पोस्टिंग के बारे में बताते थे—”पापा अभी कश्मीर में हैं”, “अभी बॉर्डर पर हैं”। और मैं? मैं बस इतना कह पाता—”पापा खेत में हैं”।
किसान पुत्र होना गर्व की बात नहीं समझी जाती, बल्कि मज़ाक बन जाता है। लेकिन कोई ये क्यों नहीं देखता कि जब देश में अनाज की कमी होती है, तब हमारे पिता अपने पेट पर पट्टी बांधकर खेत में मेहनत कर रहे होते हैं।
किसान के बच्चों की तकलीफें – स्कूल से समाज तक
शिक्षा का संघर्ष:
– गाँवों में स्कूल हैं, लेकिन अच्छी शिक्षा नहीं।
– शहर में पढ़ने जाओ तो फीस भरने के लिए फ़सल का दाम देखना पड़ता है।
– अगर फ़सल बर्बाद हो जाए तो स्कूल छोड़ना पड़ता है।
समाज में पहचान:
– एक जवान का बेटा कहे कि वह जवान बनेगा, तो लोग गर्व करते हैं।
– एक किसान का बेटा कहे कि वह किसान बनेगा, तो लोग हंसते हैं।
– शादी-ब्याह में भी किसान का बेटा होना गर्व की बात नहीं समझी जाती।
मानसिक दबाव और आत्महत्या:
– जवान की शहादत पर पूरा देश रोता है, लेकिन किसान की आत्महत्या सिर्फ़ एक खबर बनकर रह जाती है।
– हर साल हज़ारों किसान आत्महत्या कर लेते हैं, लेकिन सरकार बस आंकड़े गिनती है।
– जवान को ट्रेनिंग मिलती है कि कैसे युद्ध में रहना है, लेकिन किसान को कोई नहीं सिखाता कि कर्ज़ से कैसे लड़ा जाए।
नई बहस—अब क्या सिर्फ़ “जय जवान, जय किसान”???
लाल बहादुर शास्त्री जी ने कहा था—”जय जवान, जय किसान।” लेकिन यह नारा अब खोखला हो चुका है।
जवान के लिए सुविधाएँ हैं, लेकिन किसान के लिए योजनाएँ सिर्फ़ कागजों में रह जाती हैं।
जवान के बच्चों को सरकारी स्कूल, कॉलेज और नौकरियों में प्राथमिकता मिलती है। लेकिन किसान के बच्चों के लिए कोई विशेष सुविधा नहीं,यहां तक वो अब सीधा इंग्लिश पढ़ते बोलते हैं और किसान का बच्चा खेत की बात करने से डरता हैं क्योंकि वह सरकारी का पढ़ा हैं।
जवान की शहादत पर मुआवज़ा तुरंत मिलता है, लेकिन किसान की मौत के बाद परिवार को न्याय के लिए भीख माँगनी पड़ती है।
अब सवाल यह है—क्या हमें नए नारे की जरूरत है? क्या सिर्फ़ “जय जवान, जय किसान” कहना काफ़ी है?
समाधान क्या है?
– किसानों को भी सैनिकों जैसी सुविधाएँ मिलें।
– अगर एक जवान को जीवन बीमा, पेंशन और मुआवज़ा मिलता है, तो किसानों को भी यह मिलना चाहिए।
– किसान के बच्चों को शिक्षा और रोजगार में प्राथमिकता मिले।
– जिस तरह जवान के बच्चों को विशेष अवसर मिलते हैं, वैसे ही किसान के बच्चों को भी मिलना चाहिए।
– कृषि को उद्योग का दर्जा दिया जाए।
– जब तक खेती को सम्मान नहीं मिलेगा, किसान और उसके बच्चे संघर्ष करते रहेंगे।
– किसानों की आत्महत्या पर सरकार ज़िम्मेदारी ले।
– एक जवान की मौत पर जब सरकार मुआवज़ा देती है, तो किसान की आत्महत्या पर क्यों नहीं?
– समाज में किसान के बच्चों को सम्मान मिले।
– जब कोई कहे “मैं किसान का बेटा हूँ”, तो उसे गर्व महसूस होना चाहिए, शर्म नहीं।
– जवान के तो बच्चे को भी अच्छा इलाज,किसान को इलाज के नाम पर सरकारी अस्पतालों की तकलीफें
अंत में—मैं किसान पुत्र हूँ, और यह मेरा संघर्ष है।
मैं किसी जवान का सम्मान कम नहीं कर रहा। मैं जानता हूँ कि उनका बलिदान बहुत बड़ा है। लेकिन अब वक़्त आ गया है कि किसान के संघर्ष को भी समान रूप से स्वीकार किया जाए।
अगर जवान सीमा पर न हो, तो देश सुरक्षित नहीं रहेगा।
लेकिन अगर किसान खेत में न हो, तो देश और जवान भूखा मर जाएगा।
तो फिर,हम किसान और उसके बच्चों को संघर्ष करने के लिए अकेला क्यों छोड़ देते हैं?
अब सोचिए, क्या “जय जवान, जय किसान” ही काफी है, या कुछ बदलना भी पड़ेगा?
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