सरकारी स्कूलों की हकीकत पर करारा तमाचा – पैलि विद्यालय की बदहाली को क्यों नज़रअंदाज़ कर रहे अधिकारी?

चौखुटिया, अल्मोड़ा:

सरकारी फाइलों में शिक्षा की चमचमाती तस्वीरें दिखती हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत कहीं और ही बयान करती है। राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय पैलि की जर्जर हालत एक बार फिर यह सवाल खड़ा करती है – क्या वास्तव में बच्चों की ज़िंदगी की कोई कीमत नहीं है?

 

विद्यालय की छतें जर्जर हैं, फर्श टूटे पड़े हैं, प्लास्टर गिर रहा है, और किचन स्टोर किसी भी दिन हादसे की वजह बन सकता है। 2005-06 में बना भवन आज खुद अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है, और जिम्मेदार अफसरशाही अब तक आंख मूंदे बैठी है।

 

तीन पत्र और एक गंभीर सच्चाई:

1. जून 2022 में, जिला शिक्षा अधिकारी ने तकनीकी निरीक्षण के आधार पर भवन की मरम्मत की सिफारिश की थी। लेकिन न तो समय पर कार्रवाई हुई और न ही कोई ठोस जवाबदारी तय की गई।

 

 

2. नवंबर 2024 में, विद्यालय प्रबंधन समिति ने बैठक कर साफ कहा कि भवन की स्थिति भयावह है। कक्षाओं, कार्यालय, किचन स्टोर और टॉयलेट की छतें और दीवारें अब जानलेवा बन चुकी हैं।

 

 

3. फरवरी 2025 में, समिति ने फिर से अफसरों को चेताया कि हालात बेकाबू हो रहे हैं, और बच्चे दहशत में पढ़ाई कर रहे हैं।

 

फिर भी – न बजट आया, न काम शुरू हुआ। काग़ज़ी कार्रवाईयों में सब कुछ “संपन्न” दिखाया जा रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि सरकारी लापरवाही बच्चों की ज़िंदगी से खिलवाड़ बन चुकी है।

 सवाल जो उठने जरूरी हैं:

जब भवन को 2022 में ही खतरनाक घोषित कर दिया गया था तो अब तक मरम्मत क्यों नहीं हुई?

 

क्या अफसर किसी बड़ी दुर्घटना के इंतजार में हैं?

 

ग्राम प्रधान और विद्यालय समिति की बार-बार की चिट्ठियों का कोई मतलब नहीं?

 

 

जनभागीदारी’ सिर्फ भाषणों तक सीमित?

बात “जनभागीदारी मॉडल” की होती है, लेकिन जब एक गांव की विद्यालय समिति बार-बार प्रशासन से गुहार लगाती है और उसकी सुनवाई नहीं होती, तो यह सवाल बनता है कि क्या ये सारी योजनाएं सिर्फ शहरी रिपोर्टों तक ही सीमित हैं?

 

निष्कर्ष:

सरकारी उदासीनता का यह मामला आने वाले समय में एक बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है। यदि अब भी मरम्मत कार्य शुरू नहीं हुए, तो इसकी सीधी जिम्मेदारी संबंधित अफसरों और शिक्षा विभाग की होगी।

‘पैलि’ की ये तस्वीरें किसी एक गांव की नहीं, बल्कि पूरे सरकारी सिस्टम के खोखलेपन का आईना हैं।

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“अब नहीं तो कब?” – प्रशासन को जवाब देना ही होगा।

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