रिपोर्ट,किसान पुत्र कार्तिक उपाध्याय
बागेश्वर।
उत्तराखंड में टनकपुर से बागेश्वर तक बनने वाली 154.58 किमी लंबी रेल परियोजना को विकास का बड़ा कदम बताया जा रहा है। 6966.33 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाली इस रेलवे लाइन में 93 बड़े पुल, 183 छोटे पुल, 72 सुरंगें, 2 वायाडक्ट ब्रिज और 3 अंडर ब्रिज का निर्माण प्रस्तावित है। सरकार का दावा है कि इस परियोजना से पहाड़ों की कनेक्टिविटी बढ़ेगी, पर्यटन और व्यापार को बढ़ावा मिलेगा तथा लोगों के लिए सुविधाजनक आवागमन संभव होगा।
लेकिन, इस परियोजना से पहाड़ों की संवेदनशील पारिस्थितिकी, भूगर्भीय संरचना और स्थानीय समुदायों पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इस क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य जोशीमठ जैसी त्रासदी को दोहरा सकता है। अगर इस परियोजना को बिना गहराई से अध्ययन किए लागू किया गया, तो यह पहाड़ों के लिए विकास नहीं, बल्कि भविष्य की एक और आपदा बन सकती है।
जोशीमठ: एक चेतावनी, जिसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता
जोशीमठ, जो उत्तराखंड का एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल और पर्यटन केंद्र रहा है, आज धीरे-धीरे जमीन में धंसता जा रहा है। जनवरी 2023 में वहां के हजारों घरों, सड़कों और इमारतों में दरारें पड़ गईं, जिससे लोगों को अपना घर छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर जाना पड़ा। भू-वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि इस क्षेत्र की भौगोलिक संरचना बेहद नाजुक है, और वहां हो रहे भारी निर्माण कार्यों ने इसे अस्थिर कर दिया।
विशेषज्ञों के अनुसार, जोशीमठ में हो रहे भूधंसाव के पीछे प्रमुख कारण थे:
⚠️ बड़े पैमाने पर सुरंगों और सड़क निर्माण कार्यों के लिए की गई खुदाई।
⚠️ एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना के तहत बन रही सुरंगों से जलस्रोतों के साथ छेड़छाड़।
⚠️ भूगर्भीय अस्थिरता के बावजूद अंधाधुंध इमारतों और होटलों का निर्माण।
जोशीमठ त्रासदी की गूंज आज भी सुनी जा सकती है, क्योंकि वहां के घरों में दरारें बढ़ती जा रही हैं और लोग अब भी डर के साए में जी रहे हैं।
क्या टनकपुर-बागेश्वर रेलवे लाइन भी जोशीमठ जैसा संकट लाएगी?
टनकपुर-बागेश्वर रेल परियोजना को हिमालयी क्षेत्र में लंबी सुरंगों, बड़े पुलों और गहरी खुदाई के सहारे बनाया जाना है। यह ठीक उसी तरह का निर्माण कार्य है, जिसने जोशीमठ में भूगर्भीय अस्थिरता को बढ़ाया। अगर यह परियोजना सतत विकास के सिद्धांतों को ध्यान में रखे बिना लागू की गई, तो यह इलाका भी भूधंसाव, भूस्खलन और प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में आ सकता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी बेहद नाजुक होती है, और यहां किसी भी बड़े निर्माण कार्य से स्थानीय जलस्तर, पारिस्थितिकी और भूमि संरचना पर गंभीर असर पड़ सकता है। अगर इस परियोजना को बिना समुचित वैज्ञानिक अध्ययन के लागू किया गया, तो इससे स्थानीय लोगों की ज़िंदगी पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा।
स्थानीय समुदायों और पर्यावरण पर संभावित प्रभाव
1. आवास और आजीविका पर खतरा – रेलवे लाइन के लिए कई ग्रामीणों की ज़मीन का अधिग्रहण किया जाएगा, जिससे उनकी आजीविका प्रभावित होगी।
2. भूस्खलन और जल संकट – सुरंगों और पुलों के निर्माण से पर्वतीय इलाकों की प्राकृतिक जलधारा बाधित होगी, जिससे कई गांवों में पानी की किल्लत हो सकती है।
3. वन्यजीवों और जैवविविधता को खतरा – परियोजना के कारण हजारों पेड़ काटे जाएंगे, जिससे वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास खत्म हो सकता है।
4. पर्यटन को उल्टा नुकसान – सरकार इस परियोजना को पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बना रही है, लेकिन अगर निर्माण कार्य के चलते भूस्खलन, भूधंसाव या जल संकट जैसी समस्याएं बढ़ीं, तो यह इलाका पर्यटकों के लिए कम आकर्षक और ज्यादा जोखिम भरा हो जाएगा।
क्या विकास की यह कीमत सही है?
बिना शक, उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य को बेहतर कनेक्टिविटी और आधारभूत ढांचे की जरूरत है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह विकास टिकाऊ है? उत्तराखंड पहले ही केदारनाथ आपदा, जोशीमठ भूधंसाव और ऋषिगंगा त्रासदी जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर चुका है। इनमें से कई आपदाएँ मानवजनित गतिविधियों के कारण और भी गंभीर हुईं।
विकास जरूरी है, लेकिन अंधाधुंध नहीं। अगर सतत विकास के मॉडल को अपनाए बिना इस तरह की बड़ी परियोजनाएं शुरू की गईं, तो यह पहाड़ों के लिए किसी वरदान से ज्यादा एक अभिशाप बन सकती हैं।
सरकार को क्या करना चाहिए?
1. पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) को सार्वजनिक किया जाए और पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए।
2. स्थानीय भूगर्भीय अध्ययन और वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर ही निर्माण कार्य शुरू किया जाए।
3. स्थानीय समुदायों से विचार-विमर्श किया जाए और उनके हितों को प्राथमिकता दी जाए।
4. जोशीमठ त्रासदी से सबक लेते हुए निर्माण कार्यों की सतर्क निगरानी की जाए।
5. बड़े पैमाने पर पेड़ कटाई और विस्फोटकों के उपयोग से बचा जाए, ताकि पहाड़ियों की प्राकृतिक संरचना प्रभावित न हो।
अगर इस परियोजना को वैज्ञानिक और सतत विकास के सिद्धांतों के साथ आगे नहीं बढ़ाया गया, तो यह सिर्फ एक रेलवे लाइन नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक और पर्यावरणीय संकट बन सकती है। सरकार को चाहिए कि वह विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखे, ताकि उत्तराखंड की प्राकृतिक विरासत सुरक्षित रह सके।
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