गैरसैंण/देहरादून।
उत्तराखंड विधानसभा सत्र को लेकर एक गंभीर सवाल उठ खड़ा हुआ है। सदन की कार्यवाही में सोमवार का दिन शामिल ही नहीं किया जाता, जबकि यह वही दिन होता है जब विधायकों को मुख्यमंत्री से सीधे सवाल पूछने का अधिकार मिलता है। इस व्यवस्था ने जनता के बीच यह धारणा बना दी है कि कहीं न कहीं जनता के सवालों से बचने के लिए लोकतंत्र की मर्यादा से समझौता किया जा रहा है।
सोमवार क्यों नहीं आता सत्र में?
विधानसभा के नियमों के अनुसार सोमवार का दिन विशेष रूप से मुख्यमंत्री से सवाल पूछने के लिए निर्धारित होता है। इस दिन विपक्ष के विधायक सीधे जनता से जुड़े सवाल मुख्यमंत्री से पूछ सकते हैं और जवाब भी मुख्यमंत्री को ही देना होता है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि जब भी सत्र बुलाया जाता है, उसमें सोमवार का दिन शामिल ही नहीं किया जाता।
मुख्यमंत्री के पास कई अहम विभाग
यह स्थिति और भी गंभीर इसलिए हो जाती है क्योंकि मुख्यमंत्री के पास खनन विभाग समेत कई अन्य महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारी है। प्रदेश में अवैध खनन, राजस्व हानि, पर्यावरणीय क्षति और जनता से सीधे जुड़े मुद्दों पर सवाल उठना स्वाभाविक है। लेकिन जब सोमवार का दिन सत्र में लाया ही नहीं जाता तो इन सवालों को उठाने और जवाब पाने का लोकतांत्रिक अवसर ही खत्म हो जाता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल
विधानसभा जनता की आवाज़ और उनके सवालों को उठाने का सबसे बड़ा मंच है। अगर विधायकों को मुख्यमंत्री से सीधे सवाल पूछने का मौका ही न दिया जाए, तो फिर जनता की पीड़ा और समस्याएँ कहाँ सुनी जाएँगी? विशेषज्ञ इसे लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करने वाली प्रवृत्ति बताते हैं।
विपक्ष का आरोप
विपक्षी दलों का कहना है कि यह जानबूझकर की गई रणनीति है ताकि मुख्यमंत्री को सीधे जवाबदेह न होना पड़े। विपक्ष ने इसे लोकतंत्र और जनता के अधिकारों का मज़ाक करार दिया है।
जनता की उम्मीदें
उत्तराखंड एक संवेदनशील पर्वतीय राज्य है जहाँ स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, रोजगार, पलायन और आपदाएँ सबसे बड़े मुद्दे हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री से सीधे सवाल पूछने का मौका विधानसभा में न मिलना, जनता की उम्मीदों और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर चोट जैसा है।
निष्कर्ष
विधानसभा सत्र में सोमवार को शामिल न करना केवल तकनीकी या परंपरागत मामला नहीं है, बल्कि यह एक गंभीर लोकतांत्रिक प्रश्न है। मुख्यमंत्री के पास खनन जैसे बड़े और संवेदनशील विभाग हैं, जिनसे जुड़े सवाल जनता के मन में हैं। ऐसे में सोमवार का बहिष्कार कहीं न कहीं जनता की आवाज़ को दबाने जैसा है। अगर इस पर पुनर्विचार नहीं हुआ तो यह जनता के विश्वास और लोकतंत्र दोनों के लिए खतरनाक संकेत साबित हो सकता है।
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