देहरादून।
फरवरी 2023 में उत्तराखंड में हुए बेरोजगार आंदोलन को आज दो साल पूरे हो गए हैं। यह आंदोलन प्रदेश के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, जहां युवाओं ने सरकारी भर्तियों में पारदर्शिता की मांग को लेकर सड़क पर संघर्ष किया। पुलिस ने आंदोलन को कुचलने के लिए लाठीचार्ज किया और कई युवाओं पर मुकदमे दर्ज हुए।
लेकिन इस आंदोलन के दो साल बाद तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है—कुछ युवा नेता बनकर उभर आए हैं और राजनीतिक कुर्सियों के आसपास में अपनी जगह बना चुके हैं, जबकि कई अन्य युवा आज भी उन मुकदमों के बोझ तले दबे हुए हैं, जो उस आंदोलन के दौरान उन पर लगाए गए थे।
उत्तराखंड बेरोजगार संघ ने किया था युवाओं को एकजुट
इस आंदोलन की शुरुआत उत्तराखंड बेरोजगार संघ के नेतृत्व में हुई थी। संघ ने प्रदेशभर के युवाओं से देहरादून पहुंचने का आह्वान किया था, जिसके बाद हजारों की संख्या में बेरोजगार युवा राजधानी पहुंचे और गांधी पार्क में धरना-प्रदर्शन किया।
प्रदर्शनकारी सरकारी भर्तियों में हो रही धांधली, लटकी हुई परीक्षाओं और भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर उतरे थे। उनका सीधा आरोप था कि उत्तराखंड लोक सेवा आयोग (UKPSC) और उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (UKSSSC) की परीक्षाओं में पारदर्शिता नहीं थी।
हालांकि, जब प्रदर्शन तेज हुआ और सरकार पर दबाव बढ़ने लगा, तो प्रशासन ने बल प्रयोग किया। पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जिससे कई युवा घायल हो गए और सैकड़ों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कर दिए गए।
आंदोलन के बाद सरकार को बनाना पड़ा नकल विरोधी कानून
इस आंदोलन का असर इतना व्यापक था कि उत्तराखंड की भाजपा सरकार को नकल विरोधी कानून लाना पड़ा। परीक्षा में धांधली करने वालों पर सख्त कार्रवाई हुई, कई लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। हालांकि, इनमें से अधिकांश लोग कानूनी प्रक्रियाओं के तहत बाद में जमानत पर बाहर भी आ गए।
सरकार की इस कार्रवाई को आंदोलन की जीत के रूप में देखा गया, लेकिन जिन युवाओं पर मुकदमे लगे, वे आज भी न्याय की उम्मीद में बैठे हैं।
बॉबी पवार राजनीति में आए, लेकिन कई युवा आज भी संघर्षरत
आंदोलन का नेतृत्व कर रहे बॉबी पवार अब एक राजनेता के रूप में पहचाने जाने लगे हैं। उन्होंने टिहरी लोकसभा से चुनाव लड़ा और 1,68,000 वोट जुटाए। हालांकि, अब उनके साथ के लोग कहते हैं कि उन्हें आंदोलनकारी नेता नहीं बल्कि राजनीतिक नेता कहा जाए।
इस स्थिति में सवाल उठता है कि अगर आंदोलन से निकले नेता राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में उलझ जाएं, तो युवाओं पर लगे मुकदमे कौन हटवाएगा?
अगर युवाओं को ही अपनी लड़ाई खुद लड़नी है, तो फिर किसी संगठन के आह्वान पर आंदोलन में भाग लेने और अपनी युवा उम्र में मुकदमे झेलने का क्या औचित्य है? यह एक बड़ा सवाल बन चुका है।
आंदोलनकारी युवाओं की चुनावी राजनीति में हार—क्या सरकार की रणनीति हुई सफल?
पिछले दो वर्षों में बेरोजगार आंदोलन से जुड़े कई युवा सरकार को जवाब देने के लिए चुनावी राजनीति में भी उतरे। उन्होंने सोचा कि सरकार को उसी के तरीके से हराया जाए—जनता के बीच जाकर और सरकार के खिलाफ माहौल बनाकर।
लेकिन जब राज्य के भीतर हुए उपचुनाव में इन युवाओं ने सरकार को नुकसान पहुंचाने की रणनीति अपनाई, तो वे खुद ही अपनी योजना में विफल हो गए। जिन नेताओं और संगठनों पर उन्होंने भरोसा किया, वे राजनीतिक जमीन पर ज्यादा मजबूत नहीं थे, और अंततः वही सरकार, जिसने उन पर मुकदमे लगाए थे, उसी के प्रत्याशी चुनाव जीतकर सामने आए।
यह न केवल आंदोलनकारी युवाओं की रणनीतिक राजनीतिक असफलता थी, बल्कि सरकार की एक सफल रणनीति का हिस्सा भी था। सरकार ने इस आंदोलन को धीरे-धीरे कमजोर किया, कुछ युवाओं को राजनीतिक महत्वाकांक्षा में उलझाया, और बाकी को मुकदमों में उलझाकर उनकी ऊर्जा खत्म कर दी।
यह सवाल उठता है कि जब सरकार की ही पार्टी के प्रत्याशी लगातार जीतते जा रहे हैं, तो क्या यह आंदोलनकारियों की रणनीतिक असफलता नहीं है?
यदि युवा वास्तव में सत्ता को चुनौती देना चाहते थे, तो उन्हें चुनाव से पहले एक मजबूत जनाधार बनाना चाहिए था। लेकिन वे केवल आंदोलन की लोकप्रियता के भरोसे चुनावी मैदान में उतरे, और सरकार की तैयार रणनीति के आगे उनकी राजनीति टिक नहीं पाई।
इससे यह भी साफ हो गया कि किसी भी आंदोलन का असली उद्देश्य सिर्फ सरकार को अस्थायी रूप से घेरना नहीं, बल्कि जनता के विश्वास को जीतकर दीर्घकालिक बदलाव लाना होना चाहिए। वरना यह केवल भावनात्मक उबाल बनकर रह जाता है, जिसका सरकार पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता।
तीसरे राजनीतिक विकल्प की तलाश, लेकिन ऐसे में क्या जनता स्वीकार करेगी?
आंदोलन के बाद अब उत्तराखंड में तीसरे राजनीतिक विकल्प की तैयारी शुरू हो चुकी है। कुछ युवा इसे नए राजनीतिक मंच के रूप में देख रहे हैं, लेकिन इतिहास बताता है कि आंदोलन से निकले नेताओं की राजनीति में सीमित उम्र होती है।
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल आंदोलन से निकलकर नेता बने, लेकिन लंबे समय तक जनता के बीच अपनी पकड़ बनाए रखना मुश्किल साबित हुआ है। हाल ही में दिल्ली की जनता ने यह संदेश भी दिया कि यदि आंदोलन से नेता बनोगे और भटक जाओगे, तो जनता माफ नहीं करेगी।
उत्तराखंड में भी यही स्थिति देखी जा रही है। युवा आंदोलनकारी नेता सत्ता में पहुंचने से पहले ही अपनी राह भटक चुके हैं। इसका एक मुख्य कारण यह है कि नेतृत्व करने वाले व्यक्ति बुद्धिजीवी वर्गों से संवाद नहीं करें और केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के साथ आगे बढ़े। एक कमजोर नेतृत्व की पहचान यह होती है कि सरकार उसके आंदोलन को गंभीरता से नहीं लेती, और यही उत्तराखंड में हो रहा है।
आंदोलन का प्रभाव खत्म करने वाली गलतियां
2023 के बेरोजगार आंदोलन के बाद प्रदेश में कई छोटे-बड़े आंदोलन हुए, लेकिन सरकार झुकने को तैयार नहीं दिखी। इसका एक कारण यह भी रहा कि कुछ युवा आंदोलनकारियों ने ऐसी गलतियां कीं, जिनसे आंदोलन की शक्ति कमजोर पड़ गई।
भूख हड़ताल तोड़ने की घटना: आंदोलन के दौरान एक युवा अपने ही साथी को भूख हड़ताल पर बैठाकर बाद में खुद ही हड़ताल तुड़वा देता है। यह आंदोलन की गंभीरता पर सवाल खड़ा करता है।
पानी की टंकी पर चढ़कर सरकार को धमकाने की रणनीति: युवाओं ने राजधानी में पानी की टंकी पर चढ़कर सरकार को डराने की कोशिश की, लेकिन बिना मांग पूरी हुए खुद ही उतर गए। इससे सरकार को यह संदेश गया कि आंदोलन केवल दिखावे के लिए हो रहे हैं और इन्हें गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है।
निष्कर्ष
फरवरी 2023 का आंदोलन केवल एक विरोध प्रदर्शन नहीं था, बल्कि यह युवाओं की शक्ति का प्रतीक बना। लेकिन अब यह सवाल उठता है कि जब आंदोलन की जीत हुई थी, तो मुकदमों का भार कुछ युवाओं पर क्यों डाला जा रहा है?
आज आंदोलन से निकले कई नेता राजनीतिक मंच पर हैं, लेकिन उनके साथ आंदोलन में शामिल युवाओं की हालत जस की तस बनी हुई है। सरकार ने कानून तो बदले, लेकिन जिन युवाओं ने इसके लिए संघर्ष किया, वे आज भी मुकदमों की मार झेल रहे हैं।
अब समय आ गया है कि सरकार और आंदोलन से निकले नेता इन युवाओं की आवाज बनें और उनके मुकदमे हटाने के लिए सार्थक कदम उठाएं। वरना भविष्य में कोई भी युवा किसी आंदोलन का हिस्सा बनने से पहले दस बार सोचेगा, और यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं होगा।
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