देहरादून।
उत्तराखंड में सिडकुल समेत अन्य औद्योगिक क्षेत्रों और निजी प्रतिष्ठानों में काम कर रहे हजारों कामगार आज भी न्यूनतम मजदूरी के उचित मानकों से वंचित हैं। आरटीआई से मिली जानकारी से खुलासा हुआ है कि 2019 के बाद से राज्य सरकार ने कामगारों की स्थिति की कोई समीक्षा नहीं की है और न ही न्यूनतम मजदूरी की नई दरें तय की गई हैं।
श्रम विभाग की जिम्मेदारी है कि वह राज्य के सरकारी और निजी क्षेत्र के कामगारों के लिए समय-समय पर न्यूनतम मजदूरी घोषित करे, जिसे लागू करना सभी कंपनियों के लिए अनिवार्य है। ऐसा न करने वालों पर कार्रवाई का प्रावधान भी है। लेकिन सरकार की चुप्पी और लापरवाही से हालात यह हैं कि कामगार आठ से दस हजार रुपए महीने पर काम करने को मजबूर हैं। बढ़ती महंगाई और सीमित आय के कारण परिवार का भरण-पोषण करना उनके लिए बेहद कठिन हो गया है।
कामगार संगठनों का आरोप है कि सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों को प्रदेश में काम कर रही कंपनियों से अप्रत्यक्ष लाभ मिलता है, इसी कारण मजदूरों के पक्ष में न्यूनतम वेतन दरों की समीक्षा जानबूझकर टाली जा रही है।
विरोधाभास यह है कि जहां कामगार अपने हक के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर विधायक अपनी तनख्वाह, भत्ते और सुविधाएँ सर्वसम्मति से हर साल बढ़ाते जा रहे हैं। कुछ ही महीने पहले ही विधायकों के वेतन और भत्तों में बढ़ोतरी की गई थी।
कामगार अब सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर कब तक उनके हक की अनदेखी होती रहेगी और सरकार कब उनकी सुध लेगी।
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